शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2010

एक शर्मनाक और चौंका देने वाला निर्णय: निवेदिता मेनन

     इसके प्रभावलोकतंत्र के लिए इसके निहितार्थों,और आने वाले भविष्य के बारे में यह जो कुछ भी कहता है- इस सबने मुझे तोड़ कर रख दिया है. मीडिया में एक के बाद एक आडम्बर प्रेमी महानुभावों द्वारा इस फैसले में किये गए समझौते की परिपक्वता के बारे दिए गए हर वक्तव्य के साथ मेरा आक्रोश बढ़ता जा रहा है. उदाहरण के लिये- प्रतापभानु का आखिर इरादा क्या है जब वे अमन सेठी द्वारा उद्धृत लेख में कहते हैं कि इस उद्देश्य के लिये उस घटनास्थल को ही राम का जन्मस्थान  मानने की स्वीकारोक्ति का एक ही अर्थ हो सकता है- धर्म के अराजनीतिकरण का प्रयास. उसी स्थल को "इस उद्देश्य के लिये" राम का जन्मस्थान मान लेने से धर्म से राजनीति कैसे अलग
हो जाती हैभूमि का स्वामित्व तय करने का उद्देश्य क्या हैसंपत्ति के विवाद में आप खुद भगवान को शामिल करने जा रहे हैं और यही है "धर्म का अराजनीतिकरण" ?
     राम आस्था का विषय हैं या तर्क कापौराणिक कथाओं का हिस्सा हैं या इतिहास कासमय से परे हैं या किसी विशेष कालखंड से बंधे हुएयथार्थ हैं या कल्पना की उपजये सभी मुद्दे बहस का विषय हो सकते हैं. पर ऐसा लगता है कि अदालत ने यह मान लिया है कि विचार-विमर्श के माध्यम से भारतीय समाज में व्याप्त अपनी पहचान के विभिन्न स्वरूपों से छुटकारा नहीं ही मिल सकता. प्रताप की और अदालत की भी समझ में ये "भारतीय अस्मिता" आखिर है क्याक्या इसमें ब्राह्म समाज को मानने वाले और मेरी माँ जैसे निष्ठावान सनातनी हिन्दू सम्मिलित हैंजिन्हें यह विचार ही स्तब्ध कर देता है कि कोई हिन्दू  ईश्वरीय अस्तित्व को भूमि के एक संकीर्णछोटे से टुकड़े तक सीमित मान सकता हैऔर गैर हिन्दुओं और दलितों के बारे में क्या विचार हैऔर नास्तिकों और धार्मिक संशयवादियों के बारे में 
     और ये राम जन्मभूमि न्यास भी आखिर है क्यामंदिर बनाने के एकमात्र उद्देश्य से अधिकतर उत्तर भारतीय साधुओंसंतों-महंतोंऔर विश्व हिन्दू परिषद् और भाजपा के सदस्यों द्वारा गठित एक न्यास. यही है "भारतीय" पहचान का प्रतीकऐसा लगता है कि अदालत ने राज्य के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को खतरे में डाले बगैर धार्मिक दावों को स्वीकार
कर लिया है. इससे शुद्धतावादी तो संतुष्ट नहीं होंगे. पर धर्मनिरपेक्षता को मज़बूत करने का यह कोई अविश्वसनीय 
तरीका नहीं है.
      पर अदालत ने धार्मिक दावों को यथावत स्वीकार नहीं किया हैकिया है क्यासुन्नियों केया आम भाषा में कहें
तो मुसलमानों के दावे स्वीकार नहीं किये गए हैंकिये गये हैं क्या? मैं आईने की दुनिया में भटकती किंकर्तव्यविमूढ़ एलिस की तरह महसूस कर रही हूं. मैं उकता चुकी हूं टालमटोल करती सतर्कता से: शायद फैसले के तकनीकी बिन्दुओं पर हमने ध्यान ही नहीं दिया. ये भूमि के स्वामित्व का विवाद हैहमें इसके कानूनी निहितार्थों  पर ध्यान 
देना चाहिएक्या हम सभी कानूनी बारीकियों को समझ पा रहे हैं...........वगैरह वगैरह.
     कानूनी बारीकियांवैधताफैसला न केवल बहुत गैर जिम्मेदाराना है बल्कि इसमें मनमाने तरीके से यह भी तय कर लिया गया है कि कब वैधता और बारीकियों पर जोर देना है और कब उन्हें नज़रंदाज़ करना है. जब भी कोई तर्क कमज़ोर लगने लगता है तो कई अन्यबिलकुल विरोधाभासी  तर्क भी जोड़ दिए गए हैंसिर्फ अपने बचाव के उद्देश्य से. ये तो ऐसे ही हुआ जैसे कोई झूठा कहने लगे कि माफ़ करें मैं अपना वादा पूरा नहीं कर पाया क्योंकि मैं डेंगू से ग्रस्त होकर बिस्तर पर पडा थाऔर मैं अपनी बीमार मां की देखभाल भी कर रहा था जिनके पैर की हड्डी टूट गई थीऔर फिर काफी तेज़ बारिश होने लगी और सड़कों पर पानी भर गया.
     "आस्था" किसी भी आधुनिक विधिक न्यायालय में निर्णय का पर्याप्त आधार हो सकती हैयही नहींऐ एस आई की रिपोर्ट दिखाती है कि मस्जिद बनाने के लिये मंदिर तोड़ा गया थाऔर सुन्नी वक्फ  बोर्ड भी निर्णायक रूप से अपना अधिकार सिद्ध करने में असमर्थ रहा है.
फिर ये है क्या?
ऐ एस आई की रिपोर्ट की वैज्ञानिकताकमियों से भरीअत्यधिक संदिग्धऔर तकनीकी तौर पर अरक्षणीय.
विधिक अभिलेखराम जन्मभूमि न्यास के पास एक भी ऐसा नहीं है जो विधिक परीक्षण में खरा उतर सके. २० मार्च,१९९२ के पट्टे के दस्तावेज़ सेजो ४३ एकड़ भूमि पर राम जन्मभूमि न्यास और विश्व हिन्दू परिषद् के दावे का आधार हैस्पष्ट हो जाता है कि वह भूमि उत्तर प्रदेश सरकार की थी और न्यास को विशिष्ट उद्देश्य मात्र के लिये दी गयी थी. यह सरकारी ज़मीन है जिसका उपयोग सार्वजनिक उद्देश्य के लिये ही किया जा सकता है. मंदिर का निर्माण ऐसे उद्देश्यों के विपरीत है. अतः भूमि पर न्यास का कोई कानूनी स्वामित्व नहीं है.
     इस लिये आस्था का सहारा लिया गया. पर आपको एक बात पता हैआस्था तो सुन्नी वक्फ बोर्ड के पास भी बहुतेरी है. प्रताप ये भी कहते हैं  संपत्ति के मामले "किसी भी पक्ष द्वारा अधिकतम की मांग करना एक भूल होगी."
"किसी भी पक्ष"  का तात्पर्य सुन्नी वक्फ बोर्ड ही हो सकता है क्योंकि न तो न्यासन ही अखाड़े द्वारा अदालत से मिली भूमि से अधिक की मांग करने की संभावना है. जितनी मिली है उससे अधिक भूमि की मांग करने अर्थ होगाप्रताप चेतावनी देते हैंकि वे लोग संपत्ति के लोभ में जिद्दी हो गये हैं. इसका अर्थ यही हुआ कि यदि न्यास भूमि पर दावा करता हो वह तो अनेक अमूर्त और ऊंचे सिद्धांतों और ईश्वर तक की प्रेरणा से ऐसा कर रहा है. पर यदि वक्फ बोर्ड अपनी कानूनी संपत्ति  पर दावा करे तो वह लोभ और असभ्यता प्रदर्शित कर रहा है.
     जब सारा तर्क ख़ामोश हो जाता है,  तो  हर ओर लोग बड़बड़ाने लगते हैंपर कल्पना कीजिये कि फैसले में यह मान लिया गया होता कि "हिन्दुओं" के दावे का कोई भी कानूनी आधार नहीं है; कल्पना करिये कि तब क्या हुआ होतातब होता रक्तपात और नरसंहार.
तो ये है असली मुद्दा. पर अगर ऐसा ही हैअगर सचमुच रक्तपात रोकने के लिये ये सब किया गया हैऔर अगर इसके लिये हत्यारों को संतुष्ट करना आवश्यक है तो अदालत जाने की आवश्यकता ही क्या थीदोनों समुदायों के समझदार लोगों की एक उपयुक्त "पंचायत" में बातचीत द्वारा निपटारा क्यों न कर लिया जाय जिसमें कमज़ोर पक्ष पूरी तरह समझौता कर ले और उसके बाद हमेशा ख़ामोश रहे ?
महिला के साथ बलात्कार हुआ हैवह गर्भवती हैउसका कोई आसरा नहीं हैपंचायत बैठती हैबलात्कारी उससे विवाह करने को तैयार हो जाता हैसारा मामला सुलझ गया. अब बच्चा अवैध संतान नहीं होगास्त्री को एक पति मिल जायेगा. और जो भी होकल्पना करो कि वो उससे शादी करने को तैयार न होताहम क्या करतेउस महिला को आत्महत्या करनी पड़ती. या फिर हमें ही उसे मारना पड़ता. उसके एक और पत्नी है. कोई बात नहीं. वो शराबी है और कई बलात्कार कर चुका है. कोई बात नहीं अगर उस लड़की की मांग भर जाये. हमारा काम हो गया. हमने मामला सुलझा दियाअब आगे बढ़ें. गड़े मुर्दे मत उखाड़ो. क्या फायदा?
     बीती ताहि बिसार देठीक हैपर मैं भ्रमित हूं. आपका मतलब है कि हम भूल जायें कि मस्जिद बनाने के लिये बाबर ने कोई मंदिर तोड़ा था या नहींअरे नहींनहीं. बीती बात से हमारा मतलब था १८ वर्ष पहले १९९२ में मस्जिद तोड़ने से. उसे भूल जाओ. और वो अतीत जब बाबर ने मंदिर तोड़ा था?  ५०० वर्ष पहलेवो अतीत तो हम हमेशा याद रखेंगे.
हम हैं वे बलात्कार की शिकार महिलाए जिनकी शादी उनके बलात्कारियों के साथ कर दी गई है ताकि गाँव पहले जैसा ही चलता रहे. 
हम का अर्थ साफ़ है- मुस्लिम और अन्य धार्मिक अल्पसंख्यक.
और वे हिन्दू भी जिनके लिये राम अप्रासंगिक हैं.
और हम बेचारे भोले लोग - अपने नामों में अपनी धार्मिक सामुदायिक पहचान संजोयेऔर उन निजी कानूनों में जो 
नियंत्रित करते हैं हमेंमगर जीते हुए इस भ्रम में कि हम नागरिक हैं एक आधुनिक लोकतंत्र केऔर जीते हुए इस भरोसे के साथ कि किसी भी संघर्ष में हर समुदाय और समूह के साथ न्याय होना ही चाहिए.
      हम में से बहुतेरे उस समय गला फाड़ कर चिल्लाते थे - ये एक राजनीतिक मुद्दा है. ये अदालत में तय नहीं किया जा सकता. इस पर राजनीतिक विचार विमर्श होना चाहियेहर स्तर पर लगातार काम करते हुएभारतीय समाज के सभी तबकों की बात सुनी जानी चाहिए इस बहस मेंइसे एक तरह का बड़ासार्वजनिकराष्ट्रीय जनमत संग्रह बन जाने दो.
पर ये कहना कितना आसान है - "अदालत को तय करने दो." मानो अदालतें समकालीन राजनीति से ऊपर होती हों.
सो अब अदालत ने तय कर दिया है. और हमारी शादी हमारे बलात्कारियों के साथ कर दी गई है. हमें खामोश कर दिया गया है हिंसा की धमकी देकर.
     कम से कम हम ये दिखावा तो न करें कि ये वीभत्स परिस्थित बिलकुल सही और न्याय संगत  है. 

शनिवार, 2 अक्तूबर 2010

अयोध्या विवाद में इलाहाबाद उच्च न्यायालय का निर्णय: एक इतिहासकार की दृष्टि से रोमिला थापर( ‘हिन्दू’ में 2/10/2010 को प्रकाशित लेख का हिन्दी रूपान्तर)


  यह निर्णय एक राजनीतिक फ़ैसला है जिसे तो राज्य ही बरसों पहले ही ले सकता था। इसमें पूरा ध्यान भूमि के स्वामित्व और ध्वस्त की गई मस्जिद के स्थान पर एक नया मन्दिर बनाने पर केन्द्रित रखा गया है। समस्या के मूल में था समकालीन राजनीति में कुछ धार्मिक हस्तियों की घुसपैठ का मामला परन्तु दावा यह भी किया जा रहा था कि इस सम्बन्ध में ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध हैं. इस ऐतिहासिक प्रमाण वाले पक्ष का उल्लेख तो हुआ परन्तु निर्णय देते समय उसकी पूरी तरह से उपेक्षा ही की गयी. 
     न्यायालय ने घोषणा की है की भूमि के एक सुनिश्चित टुकड़े पर ही एक दैवीय अथवा अर्द्ध दैवीय व्यक्तित्व का जन्म हुआ था जहां उस जन्म के उपलक्ष्य में एक नए मंदिर का निर्माण होना है. यह कहा गया है हिन्दू आस्था और विश्वास की अपील के जवाब में. कोई ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध न होने के कारण  किसी विधिक न्यायलय से ऐसे निर्णय की अपेक्षा नहीं की जाती.एक देवता के रूप में राम में हिन्दुओं की गहरी आस्था है पर क्या मात्र इसी आधार पर जन्मस्थान के दावों, भूमि के स्वामित्व, और भूमि पर कब्ज़े के लिए जानबूझ कर एक ऐतिहासिक स्मारक को ध्वस्त किये जाने के बारे में कोई कानूनी फैसला लिया जा सकता है
     निर्णय में दावा किया गया है कि वहां १२ वीं शताब्दी का एक मंदिर था जिसे मस्जिद बनाने के लिए तोड़ा गया था- अतः नया मंदिर बनाने की वैधता स्वयंसिद्ध है. भारतीय पुरातत्व विभाग के खनन कार्य और उससे निकाले गए निष्कर्षों को उनकी समग्रता में स्वीकार कर लिया गया है जबकि अन्य पुरातत्ववेत्ता और इतिहासविद उनसे सहमत नहीं हैं. ऐसे विषय में व्यवसायिक निपुणता और दक्षता की आवश्यकता होती है। इस बारे में विशेषज्ञों के बीच में गहरे मतभेद होने के बावजूद किसी एक पक्ष के दृष्टिकोण को ही अत्यन्त सरलीकृत तरीके से स्वीकार कर लिये जाने के कारण इस निर्णय पर सहज ही भरोसा नहीं जमता। एक न्यायाधीश का कथन था कि उन्होंने ऐतिहासिक पहलू पर ग़ौर नहीं किया क्योंकि वे कोई इतिहासवेत्ता नहीं हैं पर उन्होंने आगे चल कर यह भी कहा कि इन मुकदमों पर निर्णय करने के लिये इतिहास और पुरातत्व की आवश्यकता नहीं है। और यह तब जब कि विचाराधीन मुद्दे ठीक वही हैं अर्थात दावों की ऐतिहासिकता और पिछली सहस्त्राब्दी की ऐतिहासिक इमारतें।
    एक विशिष्ट राजनीतिक पक्ष के नेतृत्व के आह्वान पर भीड़ ने लगभग 500 वर्ष पुरानी ऐसी मस्जिद को जानबूझ कर ध्वस्त कर दिया जो हमारी साँस्कृतिक विरासत का हिस्सा थी। अदालती फ़ैसले के सारांश मे कहीं भी इस बात की चर्चा नहीं है कि इस निरंकुश ध्वंस और हमारी विरासत के विरुद्ध इस अपराध की भर्त्सना की जानी चाहिये। नये मन्दिर का गर्भ-गृह- राम का अनुमानित जन्मस्थान-वहीं होगा जहां मसजिद का मलबा पड़ा है। जहां एक अनुमानित मन्दिर के ध्वंस की निन्दा की गई है और इसी कारण एक नये मन्दिर के निर्माण को उचित ठहराया गया है, मस्जिद के ध्वंस की कोई निन्दा नहीं की गई है और सुविधा के लिये उसे विचारणीय विषयों के दायरे से बाहर ही रखा गया।
एक मिसाल
     इस फ़ैसले ने अदालतों के लिये एक नज़ीर भी कायम कर दी है कि कोई भी समूह जो स्वयम को एक समुदाय बताता हो अपने द्वारा पूजित किसी भी दैवीय या अर्द्ध दैवीय व्यक्तित्व का जन्मस्थान बता कर ज़मीन के किसी भी टुकड़े पर दावा कर सकता है। अब से जहां भी कोई काम का भूखण्ड दिखेगा, या कोई विवाद उत्पन्न किया जा सकेगा; ऐसे कई जन्मस्थान सामने आयेंगे। और चूंकि एक एतिहासिक स्मारक को ध्वस्त करने की निन्दा-भर्त्सना नहीं की गई है लोग ऐसे ही अन्य स्थानों को नष्ट करने से क्यों हिचकेंगे? हम पिछले वर्षों में देख चुके हैं कि पूजा-स्थलों की स्थिति अपरिवर्तित रखने सम्बन्धी 1993 का कानून निष्प्रभावी ही रहा है।
     इतिहास में जो कुछ घटा, घट चुका। उसे बदला नहीं जा सकता। पर जो भी हुआ, हम उसे उसकी समग्रता में समझना तो सीख ही सकते हैं और चीज़ों को भरोसेमन्द साक्ष्यों के आधार पर परखने की कोशिश तो कर ही सकते हैं। समकालीन राजनीति का औचित्य सिद्ध करने के लिये हम अतीत को बदल नहीं सकते। इस निर्णय ने इतिहास के प्रति सम्मान के भाव को मिटाने का काम किया है और इतिहास की जगह धार्मिक आस्था को प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया है। सच्चा समझौता तो इस भरोसे के आधार पर ही हो सकता है कि इस देश का कानून आस्था और विश्वास पर नहीं बल्कि ठोस सबूतों के आधार पर काम करता है।          

रविवार, 30 मई 2010

हिन्दुत्ववादी आतंकवाद का पर्दाफ़ाश

संपादकीय, २२ मई,२०१०. ई पी डब्ल्यू

हिन्दुत्ववादी आतंकवाद का पर्दाफ़ाश

साम्प्रदायिक दुराग्रहों ने आतंकवाद के विरुद्ध हमारे संघर्ष को कमज़ोर कर दिया है

मालेगांव में सितम्बर २००६ में हुए बम धमाकों में जब एक स्थानीय मस्जिद के बाहर जुमे की नमाज़ अदा करने के लिए एकत्रित लोगों में से ४० मारे गए और उनसे भी अधिक घायल हुए तो पहली गिरफ्तारियां कुछ मुस्लिम व्यक्तियों की हुईं जिन्हें लश्कर-ए-तैयबा (LET) और और स्टूडेंट इस्लामिक मूवमेंट ऑफ़ इंडिया (SIMI) से जुड़ा हुआ बताया गया. एक साल भी नहीं बीता था कि मई २००७ में हैदराबाद की मक्का मस्जिद में एक वैसा ही बम विस्फोट हुआ जिसमें ९ लोग मारे गए. पुलिस के अनुसार वे "परिष्कृत" बम थे जिनका विस्फोट बांग्लादेश स्थित सेलफोन से किया गया था और मुख्य अभियुक्त हरक़त-उल-जिहाद अल इस्लामी (HUJI) से जुड़े एक मुस्लिम व्यक्ति को बताया गया. पुलिस ने मनमाने तरीके से शहर के कुछ मुस्लिम युवकों को गिरफ्तार किया और उन्हें यंत्रणा देकर उनसे "अपराध" की स्वीकारोक्ति भी करा ली. ६ महीने बाद ही राजस्थान की अजमेर शरीफ दरगाह में रमज़ान के आख़िरी जुमे के दिन हुए धमाके के लिए एक बार फिर "जिहादी आतंकवादी" ज़िम्मेदार बताये गए.

महाराष्ट्र पुलिस के आतंकवाद निरोधक दस्ते (ATS) के मुखिया हेमंत करकरे की सभी उपलब्ध सुरागों की तफ्तीश करने की सहज-सरल परन्तु साहसपूर्ण कार्यवाही के चलते मालेगांव बम धमाकों से हिन्दुत्ववादी गुटों का सम्बन्ध उजागर हो गया. इस अकेली कार्यवाही के बिना ऐसे ही अन्य सारे सम्बन्ध शायद हमारे सुरक्षा प्रतिष्ठान द्वारा परोसे गए झूठों और अर्धसत्यों के पीछे दबे रह जाते. जैसा कि अब सभी जानते हैं इस हमले की योजना "अभिनव भारत" नामके एक गुट नें बनाई थी. इस गुट में कुछ धार्मिक हस्तियों के अतिरिक्त भारतीय थलसेना का एक सेवारत अधिकारी भी शामिल है. नांदेड, भोपाल, कानपुर और गोवा में बम बनाने के मामलों में हिन्दुत्ववादी गुटों के शामिल होने के और भी मामले खुले हैं. इनमें से अधिकाँश बजरंग दल से जुड़े हैं जो आर एस एस का ही एक अनुषांगिक संगठन है. बम धमाकों की श्रंखला से आर एस एस और इसके अनुषांगिक संगठनों और व्यक्तियों का सम्बन्ध अब जगजाहिर है. और यह उस दूसरे और पुख्ता सबूतों के अतिरिक्त है जो बीसियों साम्प्रदायिक नरसंहारों में इस भयावह संगठन की संलिप्तता की पुष्टि करते हैं; गुजरात में २००२ में हुआ दंगा जिनका नवीनतम और सबसे बड़ा उदाहरण है.

भारत में धार्मिक कट्टरवाद से उपजे आतंक का अगर कोई एक स्रोत है तो वो है आर एस एस. इसके छोटे भाई-बंधू इस्लामी, सिख या ईसाई कट्टरपंथी भी यद्यपि अपने-अपने तरीके से खतरनाक हैं परन्तु वे आर एस एस व इससे जुड़े संगठनों व व्यक्तियों- के संगठनात्मक संजाल,आर्थिक मजबूती, और राजनीतिक वैधता के मुकाबले में कहीं नहीं ठहरते. और जो भी हो भारत का सबसे बड़ा विपक्षी दल भी आर एस एस की शत प्रतिशत अधीनस्थ शाखा ही तो है; और इस "परिवार" की उग्र साम्प्रदायिक राजनीति ने देश में ऐसा राजनीतिक माहौल बना दिया है जिसमें कोई भी आतंकवादी कृत्य सबूतों की परवाह किये बिना मुस्लिमों से जोड़ दिया जाता है.

इसके बावजूद, मुस्लिम समुदायों के बीच इस्लामी कट्टरपंथ का उदय एक गंभीर मसला है.खुद मुस्लिमों पर भी इसके प्रतिगामी सामाजिक और राजनीतिक प्रभावों के अतिरिक्त इसके और भी घातक परिणाम संभावित हैं और इसके विरुद्ध जुझारू संघर्ष चलाने की आवश्यकता है. इस्लामी कट्टरपंथियों ने न केवल भारत अपितु पूरी दुनिया में आतंकवादी संगठनों की स्थापना और पालन-पोषण किया है और हिंसक कार्यवाहियां की हैं. इन में से किसी भी तथ्य को न तो नकारा जा सकता है न ही इस्लामी कट्टरपंथ और आतंकवाद के विरुद्ध चौकसी में ढील दी जा सकती है.

फिर भी, यह तो अब बिलकुल स्पष्ट हो चुका है कि हमारी सुरक्षा एजेंसियां, सरकारी संस्थाएं, और मंत्रालय विशेषरूप से गृहमंत्रालय साम्प्रदायिक पूर्वाग्रह से बुरी तरह ग्रस्त हैं. ऊपर उद्धृत सभी मामलों में, और अन्य भी कई मामलों में सारे फोरेंसिक और परिस्थितिजन्य साक्ष्य हिन्दुत्ववादी गुटों की सांठ-गाँठ की और संकेत करते पाए गए. फिर भी सारे साक्ष्यों की उपेक्षा करते हुए और बिलकुल साफ़-साफ़ सुरागों को दरकिनार करते हुए उन्होंने जिहादी आतंकवाद की सांठ-गांठ की कहानियाँ गढ़ीं ; मनमाने तरीके से कुछ मुस्लिम पुरुषों (और कुछ महिलाओं को भी) उठा कर उन्हें तब तक यंत्रणा देते रहे जब तक की उन्होंने अपना "अपराध" स्वीकार नहीं कर लिया और अंत में केस हल करने में सफलता का दावा करने लगे. अभी हाल में ही इसी जनवरी में ही जबकि मालेगांव से हिन्दुत्ववादी आतंक के तार जुड़े होने की पुष्टि हो चुकी थी और राजस्थान पुलिस अजमेर धमाके के अभियुक्तों से मक्का मस्जिद में रखे गए बमों से उनके सम्बन्ध के बारे में पूछताछ शुरू कर चुकी थी; उसी समय हैदराबाद पुलिस खुशी-खुशी कुछ मुस्लिमों को गिरफ़्तार कर रही थी जिनके बारे में उसका दावा था कि उनका सम्बन्ध २००७ में मक्का मस्जिद में हुए धमाकों से था. सोहराबुद्दीन शेख़, उसकी पत्नी, इशरत जहां, और उसके मित्रों की ह्त्या में गुजरात, राजस्थान, और आंध्र प्रदेश पुलिस की मिलीभगत अब पूरी तरह से साबित हो चुकी है. दिल्ली के बटाला हाउस मुठभेड़ जैसे मामलों में भी पुलिस के साम्प्रदायिक दुराग्रह और गलत कारनामों के प्राथमिक साक्ष्य भी सामने आ चुके हैं. दुर्भाग्य से ऐसे मामलों की सूची जिनमें पुलिस और सुरक्षा प्रतिष्ठान के साम्प्रदायिक दुराग्रह के प्रमाण मिलते हैं इतनी लम्बी है कि कई पोथियां भरी जा सकती हैं.

यद्यपि जाति और लिंग संबंधी पूर्वाग्रहों और भेदभावों को पहचान कर उनके समाधान कि दिशा में कुछ प्रयास किये गए हैं, धार्मिक अल्पसंख्यकों-विशेषकर मुस्लिमों के विरुद्ध भेदभाव और पूर्वाग्रहों को पहचान कर उन्हें निर्मूल करने के बारे में एक खास तरह की जिद और हठधर्मी ही देखने में आती है. यू पी ए गठबंधन की मौजूदा सरकार ने सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्टों के प्रकाश में कुछ स्वागत योग्य कदम उठाये तो हैं. इनके माध्यम से भारत के मुस्लिमों के विरुद्ध संरचनात्मक भेदभाव और पूर्वाग्रहों और उनके निर्मूलन के बारे में सवाल भी उठने लगे हैं.ये भी सच है कि हिन्दुत्ववादी गुटों और बम धमाकों का आपराधिक रिश्ते का खुलासा भी इसी गठबंधन के शासनकाल में हुआ है. फिर भी इतना भर पर्याप्त नहीं है; हमारे पूरे सुरक्षा प्रतिष्ठान को साम्प्रदायिक वायरस से मुक्त कराने के लिए अविलम्ब कदम उठाए जाने की आवश्यकता है. पर ये अभी देखना है कि वर्तमान गृहमंत्री, पी चिदम्बरम खुद को इस कार्य के लिए सक्षम सिद्ध कर पाते हैं या नहीं और कांग्रेस पार्टी प्रशासन और राज्य के ढाँचे में घर बना चुके हिंदुत्व से दो-दो हाथ करने की राजनीतिक इच्छाशक्ति जुटा पाती है या नहीं.