शनिवार, 7 फ़रवरी 2009

बाढ़ की सम्भावनायें सामने हैं

बाढ़ की सम्भावनायें सामने हैं

और नदियों के किनारे घर बने हैं।

कई दिनों से दुष्यन्त की ये पंक्तियां मन में घुमड़ रही हैं। और बदली जब घुमड़ेगी तो देर-सबेर बरसेगी भी ज़रूर। लगता है आज बारिश होगी।

मंगलौर की दुर्घटना को ले कर द्र्श्य मीडिया में और ब्लॉग जगत में भी ख़ूब हलचल मची हुई है। हमारे टी वी चैनेल तो अधिकतम फ़ुटेज श्रीराम सेने और उसके कार्यकर्ताओं को देते हुए और उनकी आलोचना के बहाने से ही सही उन्हें इतना प्रचार दे रहे हैं जिसकी स्वयम उन्होंने भी कल्पना नहीं की होगी। कुछ दिन पहले मुम्बई में हुए आतंकवादी हमले के दौरान भी यही देखने में आया था। ताज होटल से बच कर निकलती एक बदहवास, डरी और घबराई हुई महिला के पीछे एक पत्रकार कैमरा-माइक लेकर पड़ गया और उससे कुछ मसालेदार न्यूज़ उगलवाने के प्रयास में काफ़ी देर तक लगा रहा। उस आतंक को इतना प्रचार-प्रसार इस मीडिया के माध्यम से मिला कि शायद उसके सूत्रधारों के सारे मनोरथ सफ़ल हो गये होंगे।

परन्तु इस आलेख का उद्देश्य मीडिया पर हमला करना नहीं है जो अक्सर ही लोकतान्त्रिक मूल्यों की दुहाई देते-देते फ़ासिस्ट प्रतिगामी शक्तियों के हाथों का चेतन या अचेतन मोहरा बन जाता है। मन्तव्य है मंगलौर, मुम्बई जैसी घटनाओं और हादसों के निहितार्थों की ओर संकेत करना।

ज़रा एक निगाह डालें ऐसी घटनाओं के पात्रों की वर्गीय प्रष्ठभूमि पर। अधिकांश मामलों में हमलावर बेरोज़गार/अर्द्ध बेरोज़गार लुम्पेनाइज़्ड नौजवान या अधेड़ होते हैं जो इस सामाजिक ढाँचे में अपने लिये एक स्पेस बनाने का प्रयास कर रहे होते हैं या बना चुके होते हैं और उसकी निरन्तरता सुनिश्चित करने का प्रयास कर रहे होते हैं। मंगलौर के श्रीराम सेने के कार्यकर्ता हों, अयोध्या-काण्ड के कारसेवक,अहमदाबाद और उड़ीसा के हत्यारे जनसमूह या तालिबानी आतंकवादी कसाब और अन्य इन सभी की सामाजिक-आर्थिक प्रष्ठभूमि एक जैसी ही होती हैसंस्कृति, हिन्दुत्व, इस्लाम या ऐसे ही अन्य नारे भले ही अलग-अलग या परस्पर विरोधी भी नज़र आयें पर नारों के नाम पर मारपीट/मारकाट करने वालों की प्रष्ठभूमि यही होती है। हिटलर के ब्राउन शर्टस गिरोहों में भी यही लोग शामिल हुआ करते थे।

इतिहास गवाह है कि यदि समकालीन सामाजिक व्यवस्था और संस्थाओं से जनता का मोह-भंग हो जाता है तो समाज एक दोराहे पर आकर खड़ा हो जाता है।एक रास्ता जाता है जनवादी मानवीय सामाजिक व्यवस्था की स्थापना की ओर। पर इस रास्ते पर आगे बढ़ सकने के लिये आवश्यक है समाज में प्रगतिकामी जनवादी तत्व पर्याप्त रूप से सचेतन, सशक्त, समर्थ और सक्रिय हों। तभी व्यवस्था के अन्तर्निहित विरोधाभासों से उपजे जनाक्रोश को एक क्रान्तिकारी, प्रगतिशील दिशा दी जा सकती है। दूसरा रास्ता ख़तरनाक है। यदि जनवादी प्रगतिकामी शक्तियाँ अनुपस्थित,अक्षम अशक्त या निष्क्रिय होती हैं तो सामाजिक शून्य को भरने का काम करती हैं जनविरोधी, अमानवीय फ़ासीवादी शक्तियाँ।

पहले रास्ते का उदाहरण क्यूबा में देखा जा सकता है जहां जनवादी क्रान्तिकारी शक्तियों ने साम्राज्यवादी कठपुतले बतिस्ता को हटा कर राजसत्ता पर कब्ज़ा कर लिया और पूरे देश और समाज को मानव-मुक्ति के पथ पर अग्रसर कर दिया। कुछ पहले यही काम चीन में भी हो चुका था।दूसरे ख़तरनाक विकल्प के उदाहरण भी कई हैं। हिटलर का जर्मनी, फ़्रैंको का स्पेन, पिनोशे का चिली, इण्डोनेशिया……यह सूची और भी लम्बी हो सकती है।

उपरोक्त ऐतिहासिक अनुभवों के प्रकाश में भारत के समकालीन सामाजिक-राजनैतिक

परिद्रश्य पर एक निगाह डालना असंगत न होगा।

वर्तमान सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था और संस्थाओं से मोहभंग के लक्षण दिन-प्रतिदिन और भी मुखर होते जा रहे हैं। बेरोजगारों की बढ़ती संख्या नौजवानों को या तो धार्मिक उन्माद की ओर धकेल रही है या सीधे-सीधे अपराध की ओर। काँवरियों, जागरणो,धार्मिक महन्तों के प्रवचनों में कुछ वर्ष पहले तक अधेड़-अवकाश प्राप्त बुज़ुर्गों का बहुमत होता था। अब एक बड़ी संख्या नई उम्र के नौजवानों की होती है। इनमें से ही एक हिस्सा बजरंगदल, श्रीराम सेने, जैसे तथाकथित धार्मिक-सांस्कृतिक संगठनों की ओर मुड़ रहा है और दूसरा हिस्सा संगठित अपराध और आतंकवादी गतिविधियों की ओर।

क्रांति के द्वारा व्यवस्था परिवर्तन की बातें करने वाले दल और संगठन भी जाने-अनजाने इसी व्यवस्था का एक हिस्सा बन चुके हैं और उनकी सारी लड़ाई इसी व्यवस्था में अपने लिये एक कोना सुरक्षित बनाए रखने के प्रयासों तक सीमित रह गई है। क्रांति की कसमें खाने वाले कम्युनिस्ट दलों को भी उनके आचरण के चलते अधिक से अधिक सामाजिक जनवादी ही कहा जा सकता है जो अर्थवादी लोकलुभावन नारे जोर-शोर से लगाते रहते हैं और जिन्हें भृष्टतम घोर प्रतिक्रियावादी शक्तियों के साथ उठने-बैठने में कोई भी संकोच नहीं होता यदि उन्हें बैकसीट ड्राइविंग के सुख के साथ कुछ पद्मभूषण, पद्मविभूषण जैसे लॉलीपॉप मिलते रहें। क्रांति और सामाजिक परिवर्तन तो शायद उनके एजेण्डे से ही ग़ायब हो चुके हैं।

इस परिदृश्य में सामाजिक सरोकारों वाले सचेतन प्रगतिकामी लोगों पर एक बड़ी ज़िम्मेदारी आ जाती है कि समाज को प्रतिक्रियावाद की खाई में गिरने से बचाते हुए उसके ऐतिहासिक गन्तव्य की ओर अग्रसर करने में प्रभावी भूमिका निभाई जाय। यह कार्य एक दिन में किसी एक व्यक्ति के द्वारा नहीं किया जा सकता। मेरा विश्वास है कि एक बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जो वर्तमान घटनाक्रम से असन्तुष्ट हैं और समाज को और बेहतर, और अधिक जनवादी और मानवीय देखना चाहते हैं। ये सभी लोग अपने-अपने तरीके से इस दिशा में प्रयास भी कर रहे हैं। यदि इन वैयक्तिक प्रयासों को सामूहिक, संगठित, और सुनियोजित किया जा सके तो निश्चय ही एक शोषण-विहीन समाज का लक्ष्य कुछ और करीब आ सकेगा। यह आलेख भी इसी दिशा में एक छोटा सा कदम है।