प्रेत फिर दिखने लगा है। उस सनकी दढ़ियल ने 150 साल पहले एक प्रेत के आंतक की घोषणा की थी।और तभी से सारे सयाने और ओझा मिर्च की धूनी और नीम के झाड़ू से लेकर बड़े-बड़े तोप-तलवार और बम तक ले कर उस प्रेत के विनाश के प्रयास में जुटे हुए हैं। कामयाबी नहीं मिली तो मन्त्रों और झाड़-फूंक का सहारा लिया गया। और एक बार तो लगा कि जैसे प्रेत वापस गया बोतल में। दुनिया भर के अघोरी और प्रेत-पूजक दावे करते थे कि प्रेत तो सामाजिक इतिहास का हिस्सा है और उसे ऐतिहासिक प्रक्रिया से अलग नहीं किया जा सकता। सयानों ने उपाय निकाला। उन्होंने इतिहास के ही अन्त की घोषणा कर दी। न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी।
कुछ दिन अमन-चैन भी रहा(यूं न था मैंने फ़क़त चाहा था यूं हो जाये) प्रेतोपासकों में से कुछ तो बाकायदा राम-राम जपने भी लगे। जिन्होंने नहीं भी जपा उन्होंने भी आंगन में तुलसी का पौधा तो रोप ही लिया और सुबह शाम उस पर जल चढ़ाने लगे। सुग्रीव और विभीषण के राजतिलक हुए; उन्हें पुरस्कृत भी किया गया। कुछ अन्य भी थे जो देखने में तो लंकेश-मित्र बालि जैसे लगते थे पर जब भी अवसर आया उन्होंने सीना चीर कर दिखा दिया कि उनके हृदय में तो राम ही बसते हैं और उनकी गदा अगर उठेगी तो राक्षसों के विरुद्ध वरना तो वे रामजी के फ़लाहारी चाकर मात्र हैं। लगने लगा अब तो मोरचा फ़तह हो गया। लंका मे राम-राज आ गया।
‘अब मैं काह करूं कित जाऊं’ गुनगुनाते पाये जाते हैं।
अब मैं काह करूं कित जाऊं-गुनगुना रहे हैं.
जवाब देंहटाएंबेहतरीन आलेख.
जित देखो तित प्रेत. बहुत ही सुन्दर आलेख..
जवाब देंहटाएंआदरणीय डाक्टर साहब इस रूपक को समझने की कोशिश कर रहा हूँ। लेकिन उलझ जा रहा हूँ। वैसे कटाक्ष अच्छा है।
जवाब देंहटाएंबधाई!
बहुत बढिया आलेख है।
जवाब देंहटाएंसही है इन दिनो सारे मिथक उलट-पलट हो रहे है.. ।
जवाब देंहटाएंगज़ब का रूपक लिखा है आपने. वैसे जब से राजा विष्णु के पादुका वाहक बनने के बजाय उनका का अवतार बनने लगे, यज्ञ में हड्डी डालने वालों का काम आसान हो गया.
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