मंगलवार, 9 मार्च 2010

तसलीमा नसरीन और मक़बूल फ़िदा हुसैन

 तसलीमा नसरीन एक बार फिर चरचा में हैं। इस बार मुद्दा है कर्नाटक के किसी अख़बार में प्रकाशित उनके किसी लेख का कथित अनुवाद। कथित इस लिये क्योंकि स्वयं तसलीमा ने उक्त अख़बार के लिये ऐसा कोई लेख लिखने से इन्कार किया है। उन्होंने लिखा या नहीं यह एक अलग जांच का विषय हो सकता है। परन्तु उस लेख के प्रकाशित होते ही दो बातें हुईं। एक ओर तो “इस्लाम” के तथाकथित रक्षक सड़क पर उतर कर तोड़-फोड़ में संलग्न हो गये तो दूसरी ओर धर्मनिरपेक्षता और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के तथाकथित ठेकेदार लगभग हमेशा की तरह अपने-अपने बिलों में दुबके नज़र आये।राज्यसभा में वृन्दा करात मक़बूल फ़िदा हुसैन के पक्ष में तो बोलीं पर तसलीमा नसरीन के बारे में चुप्पी साध गईं। दूसरी ओर हुसैन की विरोधी भाजपा के बलबीर पुंज ने सिर्फ़ तसलीमा का मामला उठाया।
 पर प्रश्न तसलीमा या हुसैन का नहीं है। प्रश्न ये है कि धार्मिक फ़ासिस्टों को लोगों के लोकतान्त्रिक अधिकारों के हनन का लाइसेंस किसने दिया। कालिदास के कुमार संभव से लेकर खजुराहो के मन्दिरों तक तथाकथित “अश्लीलता” बिखरी पड़ी है। और इतना पीछे जाने की भी ज़रूरत क्या है? सभी शिव-मन्दिरों में शिवलिंग पूजा जाता है। पर वहां कहीं भी आस्था आहत नहीं होती। ग़रीबी-रेखा से नीचे रहने वालों में हिंदू भी हैं और मुस्लिम भी। जब केन्द्र सरकार उनके लिये सस्ते अनाज का मासिक आवंटन 35 किलो से घटा कर 25 किलो कर देती है तब भी किसी की भावनायें आहत नहीं होतीं। इसी तरह सच्चर कमीशन की रिपोर्ट में देश के अधिकांश मुस्लिमों की दयनीय आर्थिक-सामाजिक दशा के प्रमाण मिलने से भी “इस्लाम” ख़तरे में नहीं पड़ता। इस्लाम के ये तथाकथित ठेकेदार उस समय कहां दुबक गये थे जब गुजरात में निरीह मुस्लिमों का नरसंहार हो रहा था?  हुसैन कैसे चित्र बनाते हैं या कैसे चित्र बनायें इस बात का फ़ैसला चित्रकला मर्मज्ञों पर क्यों नहीं छोड़ा जा सकता? 95 साल के हुसैन को लगातार मिलती धमकियों के कारण अन्तोगत्वा अपना देश छोड़ने पर क्यों मजबूर होना पड़ता है? वो भी तब जब सर्वोच्च न्यायालय उन्हें अश्लीलता के आरोप से बरी कर चुका है। इसी तरह तसलीमा नसरीन का लिखा अगर किसी को ग़लत लगता है तो उसी तरह लिख कर उनकी आलोचना/निन्दा/भर्त्सना क्यों नहीं की जा सकती? पर कला, साहित्य, संस्कृति फ़ासिस्टों के लिये आतँक फैलाने के बहाने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं हैं। अभी भी समय है कि इस देश की मेधा-मनीषा आसन्न ख़तरे को पहचान कर उसके प्रतिकार के उपाय करे। 

1 टिप्पणी:

  1. सुन्दर सामयिक आलेख. पूर्वाग्रहों की गठरी को पटकना इतना आसान होता तो बात ही क्या थी. और अब तो प्रोपेगंडा भी एक व्यवसाय है और दंगा कराना भी. फिर शान्ति और नया की बात कौन करे?

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