मंगलवार, 13 अप्रैल 2010

देशभक्ति की बाढ़

     राष्ट्रीय एकता और देशभक्ति  की बाढ़ आ गई है देश में. कैसा अद्भुत दृश्य है!
 भाजपा,कांग्रेस,और हमारे वामपंथी- सभी एक ही सुर में हुआं-हुआं कर रहे हैं.
 भाजपा वाले ठहरे हिंदुत्व के रक्षक. उन्हें तो वेदांतवादी चिदम्बरमके साथ आना
 ही था. व्यवस्था को चुनौती देने वाले शम्बूक का सर तो मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने 
भी काटा ही था. अब चिदंबरम भी यही करें तो इसमें ग़लत क्या है? अरे वनवासी
 तो वो है जो केवट की तरह चरण धोये या शबरी की तरह बेर बीन-बीन कर अर्पित
 करे.चलो माना अब बेर नहीं मिलते. तो ठीक है-तेंदू पत्ता अर्पित करते रहो. मगर
 ये क्या? 'भुक्खड़ के हाथों में ये बंदूक कहां से आई!' अब तो कुछ करना ही पड़ेगा.
     रविशंकरप्रसाद ने कितनी अच्छी बात कही! माओवादियों को ही नहीं उनके वकीलों को भी सबक सिखाना चाहिए. ये अरुंधती राय को देखिये. हम तो समझते थे अपनी ही बिरादरी की है. अपने उपन्यास में 'कम्युनिस्टों' की क्या ख़ूब पोल खोली है. पर वो तो मोटर साइकिल पर लटक के पहुँच गई उन जंगलियों के बीच. अरे कोई तरीका है? आप बुद्धिजीवी हैं तो बुद्धिजीवी की तरह रहिये. गूगल है; विकिपीडिया है.और भी तमाम तरीके हैं माओवादियों के बारे में जानने के. अरे हमारे संवेदनशील कविहृदय विश्वरंजन जी का साक्षात्कार ले लेती.सब समझा देते वहीं बैठे-बैठे. पर नहीं. वो तो सीधे जंगलों में ही पहुँच गई.
     और हमारे वामपंथियों को तो लोग बेकार में ही ताना दे रहे हैं कि भाजपा के साथ खड़े हैं 
उनकी तो आज़माई हुई पद्धति है- ठोस परिस्थितियों का ठोस विश्लेषण। अब परिस्थितियां 
ही ऐसी हैं कि भाजपा के और उनके सुख-दुःख साझे हो गये हैं तो क्या किया जाये? बंगाल में
यही उत्पाती न जिन्दल को आने दे रहे हैं न सलीम को। टाटा को तो निकाल ही दिया। कहीं
वेदांत के पीछे पड़े हैं तो कहीं एस्सार के। तो साझे दुश्मन के सामने भाजपा या कांग्रेस से हाथ 
मिला भी लिया तो कौन सी प्रलय हो गई? अरे उनसे तो अपना 'फ़्रेण्डली मैच' है। बचे रहे तो 
सारी ज़िन्दगी खेलते रहेंगे। पर इन माओवादियों के चक्कर में अगर वनवासी ही नहीं और 
जनता भी आ गई तो फिर तो न हम रहेंगे न मैच। इसलिये पहले इनसे निबटना ज़रूरी है। 
    
     चिदंबरम जी ने सी आर पी के जवानों को भेजा था जंगलों में कि माओवादी और वनवासी
जहां भी मिलें उन्हें माला पहनाओ और प्रेम, करुणा और अहिंसा से उनका मन जीतो. और
माओवादियों ने हल्ला मचा दिया कि ये तो वनवासियों को जंगल से खदेड़ने आये हैं . और इतना
ही नहीं हथियार लेकर टूट पड़े उन पर. ये कोई तरीका है? अरे हथियार और हिंसा तो सरकार को
ही शोभा देते हैं. वनवासी,आदिवासी,मजदूर,व किसान- इनके लिए तो गांधी जी बता ही गये हैं
रास्ता. अरे भाई उससे मन न भरे तो थोडा-बहुत जिंदाबाद-मुर्दाबाद कर लो. पर ये क्या कि
हथियार ही उठा लिए! राम-राम. घोर कलियुग आ गया लगता है. चिदम्बरम जी! दमन करो हम तुम्हारे साथ हैं.

3 टिप्‍पणियां:

  1. लगे रहो दोस्त आपने अच्छा कसा है और सही कसा है विल्कूल सच बात कह दी है, यह हकदार ( आदिवासियों ) और हकमार ( बहुराष्ट्रीय निगमों ) की लड़ाई है दोस्त, निश्चित तौर पर इस लड़ाई में हकदार हारेगा और हकमार जीतेंगे क्योकि देश की सरकार ही हकमारों के साथ जो खडी है । आज नक्सलियों के द्वारा जिन सुरक्षाबलों की हत्याएं की गयी वो भी सरकारी नीतियों के उतने ही शिकार हैं जितने की अन्य । सरकार और निगमों के लिये सुरक्षाबल के जवान भी उतने ही नगण्य हैं जितने कि आदिवासी । आज के दौर में लगभग सभी दक्षिणपंथी पत्रकार भाई मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को कोसने में अपनी जितनी उर्जा खर्च कर रहे है अगर वो उतनी उर्जा सरकार को यह समझाने में खर्च करते कि सरकार मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के माध्यम से नक्सलियों से वार्ता करे और समस्या का समाधान ढूढे सैन्य कार्रवाई से बाज आये भटके हुए नक्सलियों के विरुद्ध बदले की कार्रवाई के रूप में सुरक्षाबलों के माध्यम से उनकी सामूहिक हत्या करवाने के बजाय उन्हें राष्ट्र की मुख्य धारा में वापस लाये । किन्तु अगर " नक्सली तो बहाना हैं, खनिज पर कब्जा जमाना है,, यह मानसिकता होगी तो फिर संभावित कत्लेआम को कैसे रोका जा सकता है ?

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  2. Desh main samajk asantulan ki bhyawah sthiti banti ja rahi hai aur mantriyon ko garibon ke hisse ka roti khakar bhi pet nahi bhar raha hai aise main sirf aam aur khas log ekjut hokar hi sarkari paison yani aam aadmi ke khajane ko in bhrasht mantriyon ke dwara lootne se bachakar desh main samajik santulan la sakte hain,aaeye ekjut hon login karen-http://www.hprdindia.org ye andolan ham sabka hai.Aaj social audit bahut jaroori ho gaya hai.

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