रविवार, 30 मई 2010

हिन्दुत्ववादी आतंकवाद का पर्दाफ़ाश

संपादकीय, २२ मई,२०१०. ई पी डब्ल्यू

हिन्दुत्ववादी आतंकवाद का पर्दाफ़ाश

साम्प्रदायिक दुराग्रहों ने आतंकवाद के विरुद्ध हमारे संघर्ष को कमज़ोर कर दिया है

मालेगांव में सितम्बर २००६ में हुए बम धमाकों में जब एक स्थानीय मस्जिद के बाहर जुमे की नमाज़ अदा करने के लिए एकत्रित लोगों में से ४० मारे गए और उनसे भी अधिक घायल हुए तो पहली गिरफ्तारियां कुछ मुस्लिम व्यक्तियों की हुईं जिन्हें लश्कर-ए-तैयबा (LET) और और स्टूडेंट इस्लामिक मूवमेंट ऑफ़ इंडिया (SIMI) से जुड़ा हुआ बताया गया. एक साल भी नहीं बीता था कि मई २००७ में हैदराबाद की मक्का मस्जिद में एक वैसा ही बम विस्फोट हुआ जिसमें ९ लोग मारे गए. पुलिस के अनुसार वे "परिष्कृत" बम थे जिनका विस्फोट बांग्लादेश स्थित सेलफोन से किया गया था और मुख्य अभियुक्त हरक़त-उल-जिहाद अल इस्लामी (HUJI) से जुड़े एक मुस्लिम व्यक्ति को बताया गया. पुलिस ने मनमाने तरीके से शहर के कुछ मुस्लिम युवकों को गिरफ्तार किया और उन्हें यंत्रणा देकर उनसे "अपराध" की स्वीकारोक्ति भी करा ली. ६ महीने बाद ही राजस्थान की अजमेर शरीफ दरगाह में रमज़ान के आख़िरी जुमे के दिन हुए धमाके के लिए एक बार फिर "जिहादी आतंकवादी" ज़िम्मेदार बताये गए.

महाराष्ट्र पुलिस के आतंकवाद निरोधक दस्ते (ATS) के मुखिया हेमंत करकरे की सभी उपलब्ध सुरागों की तफ्तीश करने की सहज-सरल परन्तु साहसपूर्ण कार्यवाही के चलते मालेगांव बम धमाकों से हिन्दुत्ववादी गुटों का सम्बन्ध उजागर हो गया. इस अकेली कार्यवाही के बिना ऐसे ही अन्य सारे सम्बन्ध शायद हमारे सुरक्षा प्रतिष्ठान द्वारा परोसे गए झूठों और अर्धसत्यों के पीछे दबे रह जाते. जैसा कि अब सभी जानते हैं इस हमले की योजना "अभिनव भारत" नामके एक गुट नें बनाई थी. इस गुट में कुछ धार्मिक हस्तियों के अतिरिक्त भारतीय थलसेना का एक सेवारत अधिकारी भी शामिल है. नांदेड, भोपाल, कानपुर और गोवा में बम बनाने के मामलों में हिन्दुत्ववादी गुटों के शामिल होने के और भी मामले खुले हैं. इनमें से अधिकाँश बजरंग दल से जुड़े हैं जो आर एस एस का ही एक अनुषांगिक संगठन है. बम धमाकों की श्रंखला से आर एस एस और इसके अनुषांगिक संगठनों और व्यक्तियों का सम्बन्ध अब जगजाहिर है. और यह उस दूसरे और पुख्ता सबूतों के अतिरिक्त है जो बीसियों साम्प्रदायिक नरसंहारों में इस भयावह संगठन की संलिप्तता की पुष्टि करते हैं; गुजरात में २००२ में हुआ दंगा जिनका नवीनतम और सबसे बड़ा उदाहरण है.

भारत में धार्मिक कट्टरवाद से उपजे आतंक का अगर कोई एक स्रोत है तो वो है आर एस एस. इसके छोटे भाई-बंधू इस्लामी, सिख या ईसाई कट्टरपंथी भी यद्यपि अपने-अपने तरीके से खतरनाक हैं परन्तु वे आर एस एस व इससे जुड़े संगठनों व व्यक्तियों- के संगठनात्मक संजाल,आर्थिक मजबूती, और राजनीतिक वैधता के मुकाबले में कहीं नहीं ठहरते. और जो भी हो भारत का सबसे बड़ा विपक्षी दल भी आर एस एस की शत प्रतिशत अधीनस्थ शाखा ही तो है; और इस "परिवार" की उग्र साम्प्रदायिक राजनीति ने देश में ऐसा राजनीतिक माहौल बना दिया है जिसमें कोई भी आतंकवादी कृत्य सबूतों की परवाह किये बिना मुस्लिमों से जोड़ दिया जाता है.

इसके बावजूद, मुस्लिम समुदायों के बीच इस्लामी कट्टरपंथ का उदय एक गंभीर मसला है.खुद मुस्लिमों पर भी इसके प्रतिगामी सामाजिक और राजनीतिक प्रभावों के अतिरिक्त इसके और भी घातक परिणाम संभावित हैं और इसके विरुद्ध जुझारू संघर्ष चलाने की आवश्यकता है. इस्लामी कट्टरपंथियों ने न केवल भारत अपितु पूरी दुनिया में आतंकवादी संगठनों की स्थापना और पालन-पोषण किया है और हिंसक कार्यवाहियां की हैं. इन में से किसी भी तथ्य को न तो नकारा जा सकता है न ही इस्लामी कट्टरपंथ और आतंकवाद के विरुद्ध चौकसी में ढील दी जा सकती है.

फिर भी, यह तो अब बिलकुल स्पष्ट हो चुका है कि हमारी सुरक्षा एजेंसियां, सरकारी संस्थाएं, और मंत्रालय विशेषरूप से गृहमंत्रालय साम्प्रदायिक पूर्वाग्रह से बुरी तरह ग्रस्त हैं. ऊपर उद्धृत सभी मामलों में, और अन्य भी कई मामलों में सारे फोरेंसिक और परिस्थितिजन्य साक्ष्य हिन्दुत्ववादी गुटों की सांठ-गाँठ की और संकेत करते पाए गए. फिर भी सारे साक्ष्यों की उपेक्षा करते हुए और बिलकुल साफ़-साफ़ सुरागों को दरकिनार करते हुए उन्होंने जिहादी आतंकवाद की सांठ-गांठ की कहानियाँ गढ़ीं ; मनमाने तरीके से कुछ मुस्लिम पुरुषों (और कुछ महिलाओं को भी) उठा कर उन्हें तब तक यंत्रणा देते रहे जब तक की उन्होंने अपना "अपराध" स्वीकार नहीं कर लिया और अंत में केस हल करने में सफलता का दावा करने लगे. अभी हाल में ही इसी जनवरी में ही जबकि मालेगांव से हिन्दुत्ववादी आतंक के तार जुड़े होने की पुष्टि हो चुकी थी और राजस्थान पुलिस अजमेर धमाके के अभियुक्तों से मक्का मस्जिद में रखे गए बमों से उनके सम्बन्ध के बारे में पूछताछ शुरू कर चुकी थी; उसी समय हैदराबाद पुलिस खुशी-खुशी कुछ मुस्लिमों को गिरफ़्तार कर रही थी जिनके बारे में उसका दावा था कि उनका सम्बन्ध २००७ में मक्का मस्जिद में हुए धमाकों से था. सोहराबुद्दीन शेख़, उसकी पत्नी, इशरत जहां, और उसके मित्रों की ह्त्या में गुजरात, राजस्थान, और आंध्र प्रदेश पुलिस की मिलीभगत अब पूरी तरह से साबित हो चुकी है. दिल्ली के बटाला हाउस मुठभेड़ जैसे मामलों में भी पुलिस के साम्प्रदायिक दुराग्रह और गलत कारनामों के प्राथमिक साक्ष्य भी सामने आ चुके हैं. दुर्भाग्य से ऐसे मामलों की सूची जिनमें पुलिस और सुरक्षा प्रतिष्ठान के साम्प्रदायिक दुराग्रह के प्रमाण मिलते हैं इतनी लम्बी है कि कई पोथियां भरी जा सकती हैं.

यद्यपि जाति और लिंग संबंधी पूर्वाग्रहों और भेदभावों को पहचान कर उनके समाधान कि दिशा में कुछ प्रयास किये गए हैं, धार्मिक अल्पसंख्यकों-विशेषकर मुस्लिमों के विरुद्ध भेदभाव और पूर्वाग्रहों को पहचान कर उन्हें निर्मूल करने के बारे में एक खास तरह की जिद और हठधर्मी ही देखने में आती है. यू पी ए गठबंधन की मौजूदा सरकार ने सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्टों के प्रकाश में कुछ स्वागत योग्य कदम उठाये तो हैं. इनके माध्यम से भारत के मुस्लिमों के विरुद्ध संरचनात्मक भेदभाव और पूर्वाग्रहों और उनके निर्मूलन के बारे में सवाल भी उठने लगे हैं.ये भी सच है कि हिन्दुत्ववादी गुटों और बम धमाकों का आपराधिक रिश्ते का खुलासा भी इसी गठबंधन के शासनकाल में हुआ है. फिर भी इतना भर पर्याप्त नहीं है; हमारे पूरे सुरक्षा प्रतिष्ठान को साम्प्रदायिक वायरस से मुक्त कराने के लिए अविलम्ब कदम उठाए जाने की आवश्यकता है. पर ये अभी देखना है कि वर्तमान गृहमंत्री, पी चिदम्बरम खुद को इस कार्य के लिए सक्षम सिद्ध कर पाते हैं या नहीं और कांग्रेस पार्टी प्रशासन और राज्य के ढाँचे में घर बना चुके हिंदुत्व से दो-दो हाथ करने की राजनीतिक इच्छाशक्ति जुटा पाती है या नहीं.

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