शनिवार, 2 अक्तूबर 2010

अयोध्या विवाद में इलाहाबाद उच्च न्यायालय का निर्णय: एक इतिहासकार की दृष्टि से रोमिला थापर( ‘हिन्दू’ में 2/10/2010 को प्रकाशित लेख का हिन्दी रूपान्तर)


  यह निर्णय एक राजनीतिक फ़ैसला है जिसे तो राज्य ही बरसों पहले ही ले सकता था। इसमें पूरा ध्यान भूमि के स्वामित्व और ध्वस्त की गई मस्जिद के स्थान पर एक नया मन्दिर बनाने पर केन्द्रित रखा गया है। समस्या के मूल में था समकालीन राजनीति में कुछ धार्मिक हस्तियों की घुसपैठ का मामला परन्तु दावा यह भी किया जा रहा था कि इस सम्बन्ध में ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध हैं. इस ऐतिहासिक प्रमाण वाले पक्ष का उल्लेख तो हुआ परन्तु निर्णय देते समय उसकी पूरी तरह से उपेक्षा ही की गयी. 
     न्यायालय ने घोषणा की है की भूमि के एक सुनिश्चित टुकड़े पर ही एक दैवीय अथवा अर्द्ध दैवीय व्यक्तित्व का जन्म हुआ था जहां उस जन्म के उपलक्ष्य में एक नए मंदिर का निर्माण होना है. यह कहा गया है हिन्दू आस्था और विश्वास की अपील के जवाब में. कोई ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध न होने के कारण  किसी विधिक न्यायलय से ऐसे निर्णय की अपेक्षा नहीं की जाती.एक देवता के रूप में राम में हिन्दुओं की गहरी आस्था है पर क्या मात्र इसी आधार पर जन्मस्थान के दावों, भूमि के स्वामित्व, और भूमि पर कब्ज़े के लिए जानबूझ कर एक ऐतिहासिक स्मारक को ध्वस्त किये जाने के बारे में कोई कानूनी फैसला लिया जा सकता है
     निर्णय में दावा किया गया है कि वहां १२ वीं शताब्दी का एक मंदिर था जिसे मस्जिद बनाने के लिए तोड़ा गया था- अतः नया मंदिर बनाने की वैधता स्वयंसिद्ध है. भारतीय पुरातत्व विभाग के खनन कार्य और उससे निकाले गए निष्कर्षों को उनकी समग्रता में स्वीकार कर लिया गया है जबकि अन्य पुरातत्ववेत्ता और इतिहासविद उनसे सहमत नहीं हैं. ऐसे विषय में व्यवसायिक निपुणता और दक्षता की आवश्यकता होती है। इस बारे में विशेषज्ञों के बीच में गहरे मतभेद होने के बावजूद किसी एक पक्ष के दृष्टिकोण को ही अत्यन्त सरलीकृत तरीके से स्वीकार कर लिये जाने के कारण इस निर्णय पर सहज ही भरोसा नहीं जमता। एक न्यायाधीश का कथन था कि उन्होंने ऐतिहासिक पहलू पर ग़ौर नहीं किया क्योंकि वे कोई इतिहासवेत्ता नहीं हैं पर उन्होंने आगे चल कर यह भी कहा कि इन मुकदमों पर निर्णय करने के लिये इतिहास और पुरातत्व की आवश्यकता नहीं है। और यह तब जब कि विचाराधीन मुद्दे ठीक वही हैं अर्थात दावों की ऐतिहासिकता और पिछली सहस्त्राब्दी की ऐतिहासिक इमारतें।
    एक विशिष्ट राजनीतिक पक्ष के नेतृत्व के आह्वान पर भीड़ ने लगभग 500 वर्ष पुरानी ऐसी मस्जिद को जानबूझ कर ध्वस्त कर दिया जो हमारी साँस्कृतिक विरासत का हिस्सा थी। अदालती फ़ैसले के सारांश मे कहीं भी इस बात की चर्चा नहीं है कि इस निरंकुश ध्वंस और हमारी विरासत के विरुद्ध इस अपराध की भर्त्सना की जानी चाहिये। नये मन्दिर का गर्भ-गृह- राम का अनुमानित जन्मस्थान-वहीं होगा जहां मसजिद का मलबा पड़ा है। जहां एक अनुमानित मन्दिर के ध्वंस की निन्दा की गई है और इसी कारण एक नये मन्दिर के निर्माण को उचित ठहराया गया है, मस्जिद के ध्वंस की कोई निन्दा नहीं की गई है और सुविधा के लिये उसे विचारणीय विषयों के दायरे से बाहर ही रखा गया।
एक मिसाल
     इस फ़ैसले ने अदालतों के लिये एक नज़ीर भी कायम कर दी है कि कोई भी समूह जो स्वयम को एक समुदाय बताता हो अपने द्वारा पूजित किसी भी दैवीय या अर्द्ध दैवीय व्यक्तित्व का जन्मस्थान बता कर ज़मीन के किसी भी टुकड़े पर दावा कर सकता है। अब से जहां भी कोई काम का भूखण्ड दिखेगा, या कोई विवाद उत्पन्न किया जा सकेगा; ऐसे कई जन्मस्थान सामने आयेंगे। और चूंकि एक एतिहासिक स्मारक को ध्वस्त करने की निन्दा-भर्त्सना नहीं की गई है लोग ऐसे ही अन्य स्थानों को नष्ट करने से क्यों हिचकेंगे? हम पिछले वर्षों में देख चुके हैं कि पूजा-स्थलों की स्थिति अपरिवर्तित रखने सम्बन्धी 1993 का कानून निष्प्रभावी ही रहा है।
     इतिहास में जो कुछ घटा, घट चुका। उसे बदला नहीं जा सकता। पर जो भी हुआ, हम उसे उसकी समग्रता में समझना तो सीख ही सकते हैं और चीज़ों को भरोसेमन्द साक्ष्यों के आधार पर परखने की कोशिश तो कर ही सकते हैं। समकालीन राजनीति का औचित्य सिद्ध करने के लिये हम अतीत को बदल नहीं सकते। इस निर्णय ने इतिहास के प्रति सम्मान के भाव को मिटाने का काम किया है और इतिहास की जगह धार्मिक आस्था को प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया है। सच्चा समझौता तो इस भरोसे के आधार पर ही हो सकता है कि इस देश का कानून आस्था और विश्वास पर नहीं बल्कि ठोस सबूतों के आधार पर काम करता है।          

2 टिप्‍पणियां:

  1. बमियान में कुछ समय पहले ही बुद्ध की एक विशाल प्रतिमा इसलाम के नाम पर उडा दी गयी है यह आप भी जानते हैं और रोमिला थापर भी। उसके कुछ और पहले न्यूयोर्क के ट्विन टॉवर भी जेहाद के नाम पर नष्ट किये गये थे। आजकल अमेरिकी लोकतंत्र का अनुचित लाभ उठाते हुए कुछ तत्व ट्विन टॉवर के स्थान पर ही विजय स्तम्भ मस्जिद बनाने के लिये अडे हुए हैं। आज से 4-500 साल बाद यदि यही तत्व बमियान के बुद्ध के या ट्विन टोवर के स्थल पर उत्खनन द्वारा कोई ऐतिहासिक निश्चितता धून्धने बैठेंगे तो नहीं मिलेगी मगर उससे यह सिद्ध नहीं होता कि यह दोनो कभी थे ही नहीं। न ही यह सिद्ध होता है कि इस्लाम के नाम पर दमन और विनाश नहीं होता रहा है। ठोस सबूतों की परिभाषा इतनी क्षुद्र नहीं होनी चाहिये।

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  2. रोमिला थापर एक खास प्रायोजित और सोच की इतिहासविद रही हैं ....उनका यह सब कहना समझा जा सकता है ..मगर फैसला बहुत विचारपूर्ण और तार्किक है !

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