शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2010

एक शर्मनाक और चौंका देने वाला निर्णय: निवेदिता मेनन

     इसके प्रभावलोकतंत्र के लिए इसके निहितार्थों,और आने वाले भविष्य के बारे में यह जो कुछ भी कहता है- इस सबने मुझे तोड़ कर रख दिया है. मीडिया में एक के बाद एक आडम्बर प्रेमी महानुभावों द्वारा इस फैसले में किये गए समझौते की परिपक्वता के बारे दिए गए हर वक्तव्य के साथ मेरा आक्रोश बढ़ता जा रहा है. उदाहरण के लिये- प्रतापभानु का आखिर इरादा क्या है जब वे अमन सेठी द्वारा उद्धृत लेख में कहते हैं कि इस उद्देश्य के लिये उस घटनास्थल को ही राम का जन्मस्थान  मानने की स्वीकारोक्ति का एक ही अर्थ हो सकता है- धर्म के अराजनीतिकरण का प्रयास. उसी स्थल को "इस उद्देश्य के लिये" राम का जन्मस्थान मान लेने से धर्म से राजनीति कैसे अलग
हो जाती हैभूमि का स्वामित्व तय करने का उद्देश्य क्या हैसंपत्ति के विवाद में आप खुद भगवान को शामिल करने जा रहे हैं और यही है "धर्म का अराजनीतिकरण" ?
     राम आस्था का विषय हैं या तर्क कापौराणिक कथाओं का हिस्सा हैं या इतिहास कासमय से परे हैं या किसी विशेष कालखंड से बंधे हुएयथार्थ हैं या कल्पना की उपजये सभी मुद्दे बहस का विषय हो सकते हैं. पर ऐसा लगता है कि अदालत ने यह मान लिया है कि विचार-विमर्श के माध्यम से भारतीय समाज में व्याप्त अपनी पहचान के विभिन्न स्वरूपों से छुटकारा नहीं ही मिल सकता. प्रताप की और अदालत की भी समझ में ये "भारतीय अस्मिता" आखिर है क्याक्या इसमें ब्राह्म समाज को मानने वाले और मेरी माँ जैसे निष्ठावान सनातनी हिन्दू सम्मिलित हैंजिन्हें यह विचार ही स्तब्ध कर देता है कि कोई हिन्दू  ईश्वरीय अस्तित्व को भूमि के एक संकीर्णछोटे से टुकड़े तक सीमित मान सकता हैऔर गैर हिन्दुओं और दलितों के बारे में क्या विचार हैऔर नास्तिकों और धार्मिक संशयवादियों के बारे में 
     और ये राम जन्मभूमि न्यास भी आखिर है क्यामंदिर बनाने के एकमात्र उद्देश्य से अधिकतर उत्तर भारतीय साधुओंसंतों-महंतोंऔर विश्व हिन्दू परिषद् और भाजपा के सदस्यों द्वारा गठित एक न्यास. यही है "भारतीय" पहचान का प्रतीकऐसा लगता है कि अदालत ने राज्य के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को खतरे में डाले बगैर धार्मिक दावों को स्वीकार
कर लिया है. इससे शुद्धतावादी तो संतुष्ट नहीं होंगे. पर धर्मनिरपेक्षता को मज़बूत करने का यह कोई अविश्वसनीय 
तरीका नहीं है.
      पर अदालत ने धार्मिक दावों को यथावत स्वीकार नहीं किया हैकिया है क्यासुन्नियों केया आम भाषा में कहें
तो मुसलमानों के दावे स्वीकार नहीं किये गए हैंकिये गये हैं क्या? मैं आईने की दुनिया में भटकती किंकर्तव्यविमूढ़ एलिस की तरह महसूस कर रही हूं. मैं उकता चुकी हूं टालमटोल करती सतर्कता से: शायद फैसले के तकनीकी बिन्दुओं पर हमने ध्यान ही नहीं दिया. ये भूमि के स्वामित्व का विवाद हैहमें इसके कानूनी निहितार्थों  पर ध्यान 
देना चाहिएक्या हम सभी कानूनी बारीकियों को समझ पा रहे हैं...........वगैरह वगैरह.
     कानूनी बारीकियांवैधताफैसला न केवल बहुत गैर जिम्मेदाराना है बल्कि इसमें मनमाने तरीके से यह भी तय कर लिया गया है कि कब वैधता और बारीकियों पर जोर देना है और कब उन्हें नज़रंदाज़ करना है. जब भी कोई तर्क कमज़ोर लगने लगता है तो कई अन्यबिलकुल विरोधाभासी  तर्क भी जोड़ दिए गए हैंसिर्फ अपने बचाव के उद्देश्य से. ये तो ऐसे ही हुआ जैसे कोई झूठा कहने लगे कि माफ़ करें मैं अपना वादा पूरा नहीं कर पाया क्योंकि मैं डेंगू से ग्रस्त होकर बिस्तर पर पडा थाऔर मैं अपनी बीमार मां की देखभाल भी कर रहा था जिनके पैर की हड्डी टूट गई थीऔर फिर काफी तेज़ बारिश होने लगी और सड़कों पर पानी भर गया.
     "आस्था" किसी भी आधुनिक विधिक न्यायालय में निर्णय का पर्याप्त आधार हो सकती हैयही नहींऐ एस आई की रिपोर्ट दिखाती है कि मस्जिद बनाने के लिये मंदिर तोड़ा गया थाऔर सुन्नी वक्फ  बोर्ड भी निर्णायक रूप से अपना अधिकार सिद्ध करने में असमर्थ रहा है.
फिर ये है क्या?
ऐ एस आई की रिपोर्ट की वैज्ञानिकताकमियों से भरीअत्यधिक संदिग्धऔर तकनीकी तौर पर अरक्षणीय.
विधिक अभिलेखराम जन्मभूमि न्यास के पास एक भी ऐसा नहीं है जो विधिक परीक्षण में खरा उतर सके. २० मार्च,१९९२ के पट्टे के दस्तावेज़ सेजो ४३ एकड़ भूमि पर राम जन्मभूमि न्यास और विश्व हिन्दू परिषद् के दावे का आधार हैस्पष्ट हो जाता है कि वह भूमि उत्तर प्रदेश सरकार की थी और न्यास को विशिष्ट उद्देश्य मात्र के लिये दी गयी थी. यह सरकारी ज़मीन है जिसका उपयोग सार्वजनिक उद्देश्य के लिये ही किया जा सकता है. मंदिर का निर्माण ऐसे उद्देश्यों के विपरीत है. अतः भूमि पर न्यास का कोई कानूनी स्वामित्व नहीं है.
     इस लिये आस्था का सहारा लिया गया. पर आपको एक बात पता हैआस्था तो सुन्नी वक्फ बोर्ड के पास भी बहुतेरी है. प्रताप ये भी कहते हैं  संपत्ति के मामले "किसी भी पक्ष द्वारा अधिकतम की मांग करना एक भूल होगी."
"किसी भी पक्ष"  का तात्पर्य सुन्नी वक्फ बोर्ड ही हो सकता है क्योंकि न तो न्यासन ही अखाड़े द्वारा अदालत से मिली भूमि से अधिक की मांग करने की संभावना है. जितनी मिली है उससे अधिक भूमि की मांग करने अर्थ होगाप्रताप चेतावनी देते हैंकि वे लोग संपत्ति के लोभ में जिद्दी हो गये हैं. इसका अर्थ यही हुआ कि यदि न्यास भूमि पर दावा करता हो वह तो अनेक अमूर्त और ऊंचे सिद्धांतों और ईश्वर तक की प्रेरणा से ऐसा कर रहा है. पर यदि वक्फ बोर्ड अपनी कानूनी संपत्ति  पर दावा करे तो वह लोभ और असभ्यता प्रदर्शित कर रहा है.
     जब सारा तर्क ख़ामोश हो जाता है,  तो  हर ओर लोग बड़बड़ाने लगते हैंपर कल्पना कीजिये कि फैसले में यह मान लिया गया होता कि "हिन्दुओं" के दावे का कोई भी कानूनी आधार नहीं है; कल्पना करिये कि तब क्या हुआ होतातब होता रक्तपात और नरसंहार.
तो ये है असली मुद्दा. पर अगर ऐसा ही हैअगर सचमुच रक्तपात रोकने के लिये ये सब किया गया हैऔर अगर इसके लिये हत्यारों को संतुष्ट करना आवश्यक है तो अदालत जाने की आवश्यकता ही क्या थीदोनों समुदायों के समझदार लोगों की एक उपयुक्त "पंचायत" में बातचीत द्वारा निपटारा क्यों न कर लिया जाय जिसमें कमज़ोर पक्ष पूरी तरह समझौता कर ले और उसके बाद हमेशा ख़ामोश रहे ?
महिला के साथ बलात्कार हुआ हैवह गर्भवती हैउसका कोई आसरा नहीं हैपंचायत बैठती हैबलात्कारी उससे विवाह करने को तैयार हो जाता हैसारा मामला सुलझ गया. अब बच्चा अवैध संतान नहीं होगास्त्री को एक पति मिल जायेगा. और जो भी होकल्पना करो कि वो उससे शादी करने को तैयार न होताहम क्या करतेउस महिला को आत्महत्या करनी पड़ती. या फिर हमें ही उसे मारना पड़ता. उसके एक और पत्नी है. कोई बात नहीं. वो शराबी है और कई बलात्कार कर चुका है. कोई बात नहीं अगर उस लड़की की मांग भर जाये. हमारा काम हो गया. हमने मामला सुलझा दियाअब आगे बढ़ें. गड़े मुर्दे मत उखाड़ो. क्या फायदा?
     बीती ताहि बिसार देठीक हैपर मैं भ्रमित हूं. आपका मतलब है कि हम भूल जायें कि मस्जिद बनाने के लिये बाबर ने कोई मंदिर तोड़ा था या नहींअरे नहींनहीं. बीती बात से हमारा मतलब था १८ वर्ष पहले १९९२ में मस्जिद तोड़ने से. उसे भूल जाओ. और वो अतीत जब बाबर ने मंदिर तोड़ा था?  ५०० वर्ष पहलेवो अतीत तो हम हमेशा याद रखेंगे.
हम हैं वे बलात्कार की शिकार महिलाए जिनकी शादी उनके बलात्कारियों के साथ कर दी गई है ताकि गाँव पहले जैसा ही चलता रहे. 
हम का अर्थ साफ़ है- मुस्लिम और अन्य धार्मिक अल्पसंख्यक.
और वे हिन्दू भी जिनके लिये राम अप्रासंगिक हैं.
और हम बेचारे भोले लोग - अपने नामों में अपनी धार्मिक सामुदायिक पहचान संजोयेऔर उन निजी कानूनों में जो 
नियंत्रित करते हैं हमेंमगर जीते हुए इस भ्रम में कि हम नागरिक हैं एक आधुनिक लोकतंत्र केऔर जीते हुए इस भरोसे के साथ कि किसी भी संघर्ष में हर समुदाय और समूह के साथ न्याय होना ही चाहिए.
      हम में से बहुतेरे उस समय गला फाड़ कर चिल्लाते थे - ये एक राजनीतिक मुद्दा है. ये अदालत में तय नहीं किया जा सकता. इस पर राजनीतिक विचार विमर्श होना चाहियेहर स्तर पर लगातार काम करते हुएभारतीय समाज के सभी तबकों की बात सुनी जानी चाहिए इस बहस मेंइसे एक तरह का बड़ासार्वजनिकराष्ट्रीय जनमत संग्रह बन जाने दो.
पर ये कहना कितना आसान है - "अदालत को तय करने दो." मानो अदालतें समकालीन राजनीति से ऊपर होती हों.
सो अब अदालत ने तय कर दिया है. और हमारी शादी हमारे बलात्कारियों के साथ कर दी गई है. हमें खामोश कर दिया गया है हिंसा की धमकी देकर.
     कम से कम हम ये दिखावा तो न करें कि ये वीभत्स परिस्थित बिलकुल सही और न्याय संगत  है. 

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