शनिवार, 23 जनवरी 2016

                    रोहित वेमुला के बहाने से
     हम लोग लिलिप्यूशन बौनों का देश बन चुके हैं जो हताश निराश किसी गुलिवर की तलाश के लिये व्याकुल हो रहा है. कभी रामदेव, कभी अन्ना हजारे, कभी केजरीवाल तो कभी कोई और. किसी भी चमकते पत्थर या कांच के टुकड़े को आनन फानन में हीरा घोषित कर देने और मोहभंग होने पर फिर किसी अन्य नायक की तलाश में धूल फांकने निकल पड़ना हमारी आदत में शामिल हो चुका है. शब्दों और उनके निहितार्थों का जैसा अवमूल्यन इस दौर में हुआ है वह ऐतिहासिक है. मिस्त्र का जनउभार और ग्रीस में सिरिज़ा का उदय जैसी हर चवन्नी छाप घटना हमें ‘क्रान्ति’ नज़र आने लगती है तो वेनेज़ुएला और ह्यूगो शावेज़ हमें समाजवादी लगने लगते हैं. वैचारिक निर्वात के इस दौर में ‘सदी के महानायक’, बिल गेट्स, और मार्क जुकरबर्ग जैसे लोग हमारे प्रेरणास्त्रोत बन रहे हैं तो सीरियन युद्ध में रूस के शामिल होने के बाद कुछ लोग पुतिन को महान साम्राज्यवाद विरोधी नायक के रूप में देख रहे हैं. खैर, विस्तार भय से इस सूची को यहीं विराम देते हैं. इस सूची में एक नया नाम जुड़ गया है - रोहित वेमुला.
     रोहित वेमुला दलित वर्ग के उन अपवाद स्वरूप नवयुवकों में से था जो संयोग और सौभाग्यवश शिक्षा के पी.एच.डी स्तर तक़ पहुंच गया था. मैं उसकी प्रतिभा और उसके कठिन परिश्रम का उल्लेख इस लिये नहीं कर रहा हूं क्योंकि प्रतिभा और परिश्रम के धनी तो वे अधिकांश दलित भी होते हैं जो संसाधनों और संपर्कों के अभाव के कारण इस स्तर के आसपास भी नहीं पहुँच पाते. किन परिस्थितियों  और किन सामाजिक-राजनीतिक शक्तियों के दबाव के कारण उसे अपना जीवन समाप्त करना पड़ा इस बारे में मीडिया के अनेक मंचों पर व्यापक चर्चा हो चुकी है और हो रही है. उसे यहाँ दुहराना समय का अपव्यय मात्र होगा. मुझे कुछ और कहना है.
     एक वामपन्थी विद्वान मित्र ने रोहित की तुलना शहीद भगतसिंह से कर डाली. समझ नहीं पा रहा कि इसे रोहित का भावुक उन्नयन कहूं या भगतसिंह का अनजाने में किया गया अवमूल्यन. भगतसिंह ने एक उदात्त उद्देश्य के लिये सुखसुविधा पूर्ण जीवन का तिरस्कार करके जानबूझ कर देश और समाज की मुक्ति के लिये वह रास्ता चुना था जो फांसी के फंदे तक जाता था. उन्होंने अपना ‘कैरियर’ बनाने के लिये कुछ नहीं किया और न ही कैरियर में आने वाली अड़चनों के दबाव से टूट कर आत्महत्या की. एक करुणाजनक प्रसंग में ऐसी अतिशयोक्ति  पूर्ण तुलना अवसाद की जगह जुगुप्सापूर्ण हास्य ही उत्पन्न करती है. इससे बचा गया होता तो शायद अच्छा होता.
     एक अम्बेडकरवादी तो और भी आगे बढ़ गये. उन्होंने रोहित और भगतसिंह की तुलना को इस आधार पर ख़ारिज कर दिया कि महानता में भगतसिंह रोहित के सामने कहीं नहीं ठहरते. उनके अनुसार ‘भगत सिंह को तो पता ही नहीं था कि वे किसके लिये लड़ाई कर रहे हैं. वेमुला को पता था ......’ इनका ये भी कहना है कि ‘अंग्रेज़ अगर इतने बुरे होते तो भगतसिंह क्या किसी (भी) भारतीय को असेम्बली में बैठने देते?’ इन्हें ये भी नहीं पता कि भगतसिंह ‘या उनके समाजवाद को साइमन कमीशन से क्या भय था?’ अब ऐसे अनपढ़ विद्वानों से आप क्या कह सकते हैं ? बस इतना ही कि भाई रोहित की आत्महत्या हमारे लिये भी उतनी ही त्रासद है जितनी तुम्हारे लिये. जिस बर्बर व्यवस्था और जिन बर्बर शक्तियों ने रोहित को आत्महत्या करने के लिये बाध्य किया उनसे हमारा भी विरोध है. पर तुम्हारी ही शब्दावली में कहें तो भगतसिंह से तुम्हें क्या भय है ? भगतसिंह को एक बार पढ़ तो लिया होता अपने अज्ञान और पिछड़ी सोच का हास्यास्पद प्रदर्शन करने से पहले.
     एक और साहब हैं जिन्होंने रोहित वेमुला की आत्महत्या के लिये समूचे भारतीय वामपंथ को बराबर का ज़िम्मेदार ठहराया है. रोहित कुछ समय तक़ एस एफ़ आई में सक्रिय रहे थे. कुछ साथियों के जातिवादी व्यवहार से क्षुब्ध होकर वे अलग हो गये और अन्ततः अम्बेडकरवाद की शरण में पहुँच गये. पर ये साहब तो रोहित को ‘एक दार्शनिक’ ही नहीं अपितु मार्क्सवाद का एक गंभीर अध्येता भी सिद्ध करने पर तुले हुए हैं. उनके अनुसार वेमुला को सीपीएम से एक शिकायत यह भी थी कि पिछली लगभग आधी शताब्दी में उसके पोलितब्यूरो में एक भी दलित क्यों नहीं पहुँच सका. सीपीएम और भारत के समूचे संसदीय वामपन्थ से अनेक गंभीर मतभेदों के बावजूद यह तो कहना ही होगा कि केन्द्रीय समिति या पोलितब्यूरो में पहुँचने के लिये दलित आरक्षण जैसी कोई व्यवस्था की कल्पना भी न सिर्फ़ हास्यास्पद अपितु घोर अज्ञान की भी परिचायक है. यह तो अवश्य है कि जाति के प्रश्न को भारतीय कम्युनिस्ट सही ढंग समझ नहीं सके या उठा नहीं सके परन्तु कुछ व्यक्तियों की व्यवहारगत कमजोरियों को समूचे वामपंथ को नापने का पैमाना नहीं बनाया जा सकता. रोहित अपने को अम्बेडकरवादी मार्क्सिस्ट कहते थे. अब यह विचारकों की कौन सी श्रेणी है इस बारे में यहाँ बात करने से विषयान्तर हो जाएगा. पर इन्हीं साहब का कहना है कि रोहित ने सीताराम येचुरी से मार्क्स के ‘ प्रत्येक से उसकी योग्यतानुसार और प्रत्येक को उसकी क्षमतानुसार’ सिद्धांत(?) के परिप्रेक्ष्य में भारतीय समाज के दलित नेताओं की आवश्यकताओं पर विचार करने के लिये एक सत्र बुलाने की मांग की थी. ‘प्रत्येक से उसकी योग्यतानुसार और प्रत्येक को उसकी आवश्यकतानुसार’ का सिद्धांत समाज में कब और किन परिस्थितियों और किन सन्दर्भों में लागू होगा, मार्क्सवाद का प्रत्येक गम्भीर अध्येता इस बात से परिचित है और यहाँ उसके विस्तार में जाना अनावश्यक है. परन्तु सुने सुनाये वाक्यों में से एक वाक्य उठा लेना रोहित की तो मात्र अपरिपक्वता प्रकट करता है परन्तु जो लोग इस आधे अधूरे वाक्यांश के आधार पर रोहित को मार्क्सवाद का ज्ञाता सिद्ध करने पर तुले हुए हैं उनके बारे में क्या कहा जाये ?
    रोहित को मैं एक ऐसे प्रतिभाशाली परिश्रमशील युवक के रूप में देखता हूं  जो एक बेहतर ज़िंदगी की तलाश में था. इसी तलाश ने उसे एसएफ़आई से जोड़ा. वहां के कुछ सदस्यों और नेतृत्व की कमजोरियों के चलते उसका मोहभंग हुआ और उसने अम्बेडकरवाद को एक बेहतर विकल्प मान कर उसे अपनाया. उसने यथाशक्ति संघर्ष भी किया परन्तु बर्बर शासक वर्ग के हथकण्डों ने अन्ततः उसे तोड़ दिया और उसकी बलि ले ली. मुझ समेत उन सभी लोगों के लिये जो एक बेहतर समाज का सपना देखते हैं यह एक व्यक्तिगत त्रासदी है. परन्तु जो लोग जाने अनजाने उसे भगतसिंह जैसा, या भगतसिंह से भी अधिक महान, या मार्क्सवादी साबित करने की भावुक लफ्फाज़ी कर रहे हैं वे भगतसिंह या मार्क्स के साथ नहीं अपितु रोहित वेमुला के साथ घोर अन्याय कर रहे है.        
    


   

   

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