होली का मौसम आ गया है. आ ही नहीं गया छा भी
गया है. भौतिक-भौगोलिक ही नहीं वैचारिक क्षेत्र में भी. लाल, नीले, हरे, भगवा
रंगों की बौछारें इतनी प्रखरता से हर दिशा में हो रही हैं कि चेहरे पहचानना मुश्किल
हो रहा है . पहचाना भी कैसे जाये ! कल तक कुछ लोग लाल देह लाली लसे घूम रहे थे
उनमें से कुछ आज आध्यात्मिक नास्तिकता का एक नया ही रंग पोते घूम रहे हैं. अचरज
नहीं यदि कुछ आगे चल कर वे हनुमान मंदिर में माथा टेकते नज़र आयें. आख़िर हनुमान का
तो झंडा और लंगोट दोनों ही लाल हैं; फिर उनसे बड़ा क्रांतिकारी कौन होगा ! फागुन
में बाबा देवर लागें की तर्ज पर पुराने रिश्तों को कुछ नए नाम देने की कसरत भी
जारी है.
कुछ अन्य लाल लंगूरों में एक नया फ़ैशन ( इसे
पैशन भी कह सकते है) प्रचलित हुआ है. वे एक गाल पर लाल और दुसरे पर नीला रंग पोते
घूम रहे हैं और रंगे सियारों और लाल लंगूरों की एक संयुक्त फ़ौज बना कर दुनिया फ़तह
करने का दावा कर रहे हैं. दिक्कत बस यही है कि कभी नीले तो कभी लाल गाल पर बार बार
हाथ फेरने से वे न लाल नज़र आ रहे हैं न नीले. उनका रंग कुछ-कुछ बैंगनी दिख रहा है
और गली के लफंगे लड़के ‘होली का @@@ जेई है’ की तर्ज पर थाली का बैंगन जेई है के
नारे लगा रहे हैं. फिर भी – जिनकी दुनिया सिर्फ उम्मीद पर कायम है उन्हें कोई फर्क
नहीं पड़ता. वे ‘हम होंगे कामयाब’ गाये जा रहे हैं.
रंगे सियारों में भी लाल रंग के प्रति कोई
ममता जगी हो ऐसा कम से कम अभी तक तो देखने में नहीं आया. वे तो अभी तक शेष सभी
सियारों के बीच अपने ‘देवदूतत्व’ से पूर्ण संतुष्ट हैं. उनके बीच बहस सिर्फ इस बात
पर है कि तेरी कमीज़ मेरी कमीज़ से अधिक नीली कैसे. इसी बीच एक नया घटनाक्रम भी
देखने में आया है. अभी तक सफ़ेद कपड़ों की चमक बढ़ाने के लिये नील का प्रयोग किया
जाता था. इस बार यही प्रयोग भगवा कपड़ों की चमक बढ़ाने के लिए किया गया. नतीजा भी
हमेशा की तरह ही रहा. भगवा की चमक तो बढ़ गयी पर नील बिचारा कहीं मुंह छुपाये पड़ा
है. नतीजा यही है कि फिलहाल रंगे सियार ही सियारों के असली देवदूत बने हुए हैं.
कुछ और होली के लांगुरिया हैं जो अपने मुंह
पर पुते लाल रंग से तंग आ चुके हैं और उससे छुटकारा पाने के लिए उसे घिसे जा रहे
हैं. पर ये कमबख्त लाल रंग इतनी आसानी से पीछा कहां छोड़ता है ! घिसते-घिसते हल्का होकर ये भगवा नज़र
आने लगता है और लोग पता नहीं क्या-क्या कहने लगते है. इन बेचारों की दुविधा सबसे
जटिल है. भगवा दिखने में वे लजाते हैं और लाल से तो तंग आ ही चुके हैं. बेचारे
‘रंग बरसे भीजे चुनर वारी’ गाना चाहते थे पर गाना पड़ रहा है – अब मैं काह करूं कित
जाऊं.
इस रंगीन मौसम में सबसे अधिक मुसीबत बेचारे सावन के अंधों की है. उन्हें हर
तरफ़ हरा ही हरा नज़र आता है. कुछ हैं जिनका बस चले तो पूरे देश को शरई हरे रंग से
पुतवा दें. पर हाय री मजबूरी! कोई भी कदम उठायें कमबख्त अपनी ही बिरादरी के लोग
छींक देते हैं. ना भाई हरा तो तिरंगे में ही ठीक है. सिर्फ हरे रंग की बात करोगे
तो सुन्नी, शिया, बहाई, अहमदिया, वहाबी और न जाने कितने टूट पड़ेंगे हराम-हलाल के
फ़तवे लेकर. हम तो भई ऐसे ही ठीक हैं. एक नेकबख्त ने कोशिश की तो लोगों ने इतनी
घिसाई की कि हरे के नीचे का भगवा नज़र आने लगा. न ख़ुदा ही मिला न विसाले सनम.
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